इस लेख में हम हिंदी व्याकरण के अंतर्गत अपठित गद्यांश से संबंधित क्विज पोस्ट कर रहें हैं। इस क्विज से न केवल आपके हिंदी व्याकरण में सुधार होगा उसके साथ ही आपकी प्रतियोगी परीक्षा के लिए भी यह बेहद कारगर सिद्ध होगा।
अपठित गद्यांश Quiz:
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अपठित गद्यांश | हिंदी व्याकरण | EduTaken
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अनुच्छेद-01
अपने प्रिय जनों से रहित राज्य किस काम का? प्यारी मनुष्य- जाति का सुख ही जगत के मंगल का मूल साधन है। बिना उसके सुख के अन्य सारे उपाय निष्फल हैं। धन की पूजा से ऐश्वर्य, तेज, बल और पराक्रम नहीं प्राप्त होने का । चैतन्य आत्मा की पूजा से ही ये पदार्थ प्राप्त होते हैं। चैतन्य-पूजा ही से मनुष्य का कल्याण हो सकता है। समाज का पालन करने वाली दूध की धारा जब मनुष्य का प्रेममय हृदय, निष्कपट मन और मित्रतापूर्ण नेत्रों से निकलकर बहती है तब वही जगत में सुख से खेतों को हरा-भरा और प्रफुल्लित करती है और वही उनमें फल भी लगाती है।
प्रश्न 01.
किससे रहित राज्य किस काम का?
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प्रश्न 02:
‘जगत’ का अर्थ है:
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प्रश्न 03:
‘निष्फल’ का आशय है:
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प्रश्न 04:
‘सुख के खेतों को हरा-भरा और प्रफुल्लित’ करने का अर्थ है:
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अनुच्छेद-02
हिंदी साहित्य इतिहास को चार भागों में बाँटा गया है।
1. आदिकाल
2. भक्तिकाल
3. रीतिकाल
4. आधुनिक काल
भक्तिकाल के संत कवि सूरदास जी को कौन नहीं जानता?
भक्तिकाल के कृष्णोपासक ‘सूरदासजी’ ने सूरसागर, सूरसारावली, साहित्य लहरी आदि का अनमोल खजाना हिंदी साहित्य को दिया है। उनके पदों में वात्सल्य, शृंगार एवं शांत रस के भाव प्राप्त होते हैं। उनके लिए कहा गया है कि ‘सूर सूर तुलसी ससी उडगन केशवदास’ वे अष्टछाप के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं। उनके काव्य की विशेषता यह है कि वे गेय पद है। उनकी अधिकतर रचना, व्रजभाषा में पायी जाती है कहीं- कहीं पर संस्कृत व फारसी भाषा के शब्द भी पाये जाते हैं। उनकी रचनाओं में अनुप्रास, यमक, श्लेष, उपमा, उत्प्रेक्षा आदि सभी अलंकार पाये जाते हैं। वे जन्मान्ध थे लेकिन उनके पदों में जो वर्णन पाया जाता है, वह सजीव है। ऐसा लगता नहीं है कि वे जन्मांध थे। उनकी मृत्यु 1580 ईस्वी में हुई थी। हिंदी साहित्य जगत में वे सदैव अमर हैं।
प्रश्न 01.
हिंदी साहित्य के इतिहास को कितने भागों में बाँटा गया है?
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प्रश्न 02:
सूरदास जी कौन-से काल के संतकवि हैं?
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प्रश्न 03:
निम्नलिखित रचनाओं में से कौन-सी रचना सूरदास जी की नहीं है?
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प्रश्न 04:
सूरदास के पदों में कौन-सा रस नहीं पाया जाता?
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अनुच्छेद- 03
ईर्ष्या का काम जलाना है, मगर सबसे पहले वह उसी को जलाती है जिसके हृदय में उसका जन्म होता है। आप भी ऐसे बहुत से लोगों को जानते होंगे जो ईर्ष्या और द्वेष की साकार मूर्ति हैं, जो बराबर इस फिक्र में लगे रहते हैं कि कहाँ सुनने वाले मिलें कि अपने दिल का गुबार निकालने का मौका मिले। श्रोता मिलते ही उनका ग्रामोफोन बजने लगता है और वे बड़े ही होशियारी के साथ एक-एक काण्ड इस ढंग से सुनाते हैं, मानों विश्व कल्याण को छोड़कर उनका और कोई ध्येय नहीं हो । मगर, जरा उनके अपने इतिहास को भी देखिए और समझने की कोशिश कीजिए कि जबसे उन्होंने इस सुकर्म का आरंभ किया है, तबसे वे अपने क्षेत्र में आगे बढ़े हैं या पीछे हटे हैं। यह भी कि अगर वे निंदा करने में समय और शक्ति का अपव्यय नहीं करते तो आज उनका स्थान कहाँ होता ।
प्रश्न 01.
ईर्ष्या का काम है:
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प्रश्न 02.
गद्यांश में प्रयुक्त ‘ध्येय’ का क्या अर्थ है?
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प्रश्न 03.
गद्यांश में ईर्ष्यालु व्यक्तियों कीः
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प्रश्न 04.‘
अपव्यय’ का क्या अर्थ होता है?
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प्रश्न 05.
गद्यांश का उपर्युक्त शीर्षक क्या होगा?
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अनुच्छेद-04
अनुशासन जीवन की प्रत्येक स्थिति में आवश्यक है। अनुशासन सैनिक जीवन की आत्मा है परिवार में सद्भाव बनाए रखने के लिए इसकी आवश्यकता पहले है। समाज और राष्ट्र में शांति और सद्भावपूर्ण संबंध बनाए रखने के लिए इसकी आवश्यकता भी है। ईश्वर की सृष्टि में यदि अनुशासन नहीं है, तो अराजकता फैल जाएगी और यह विश्व तुरन्त अस्त-व्यस्त हो जाएगा।
प्रश्न 01.
अनुशासन क्यों आवश्यक है?
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प्रश्न 02.
अनुशासन किसकी आत्मा है?
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प्रश्न 03.
विश्व के अस्त-व्यस्त होने का कारण है:
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अनुच्छेद-05
उत्साह की गिनती अच्छे गुणों में होती है किसी भाव के अच्छे या बुरे होने का निश्चय अधिकतर उसको प्रवृत्ति के शुभ या अशुभ के परिणाम के विचार से होता है वही उत्साह जो कर्तव्य कर्मों के प्रति इतना सुन्दर दिखायी पड़ता है। अकर्तव्य कर्मों की ओर होने पर वैसा श्लाघ्य प्रतीत नहीं होता। आत्मरक्षा, पररक्षा, देश रक्षा आदि के निमित्त साहस की जो उमंग देखी जाती है उसके सौन्दर्य को परपीड़न डकैती आदि कर्मों का साहस कभी नहीं पहुँच सकता। यह बात होते हुए भी विशुद्ध उत्साह या साहस का प्रशंसा संसार में थोड़ी बहुत होती ही है। अत्याचारियों या डाकुओं के शौर्य व साहस की कथाएं भी लोग तारीफ करते हुए भी सुनते हैं।
प्रश्न 01.
गद्यांश का उपर्युक्त शीर्ष बताइए-
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अनुच्छेद- 06
राष्ट्र के सर्वांगीण विकास के लिए चरित्र निर्माण परम आवश्यक है जिस प्रकार वर्तमान में भौतिक निर्माण का कार्य अनेक योजनाओं के माध्यम से तीव्र गति के साथ संपन्न हो रहा है, वैसे ही वर्तमान की सबसे बड़ी आवश्यकता यह है कि देशवासियों के चरित्र निर्माण के लिए भी प्रयत्न किया जाए। उत्तम चरित्रवान व्यक्ति ही राष्ट्र की सर्वोच्च संपदा है। जनतंत्र के लिए तो यह एक महान कल्याणकारी योजना है। जन समाज में राष्ट्र, संस्कृति, समाज एवं परिवार के प्रति हमारा क्या कर्तव्य है। इसका पूर्ण रूप से बोध कराना एवं राष्ट्र में व्याप्त समग्र भ्रष्टाचार के प्रति निषेधात्मक वातावरण का निर्माण करना ही चरित्र निर्माण का प्रथम सोपान है।
पाश्चात्य शिक्षा और संस्कृति के प्रभाव से आज हमारे मस्तिष्क में भारतीयता के प्रति हीन भावना उत्पन्न हो गई है। चरित्र निर्माण, जो कि बाल्यावस्था से ही ऋषिकुल, गुरूकुल, आचार्यकुल की शिक्षा के द्वारा प्राचीन समय से किया जाता था, आज की लॉर्ड मैकाले की शिक्षा पद्धति से संचालित स्कूलों एवं कॉलेजों के लिए एक हास्यास्पद विषय बन गया है। आज यदि कोई पुरातन संस्कारी विद्यार्थी संध्यावंदन या शिखा सूत्र रख कर भारतीय संस्कृतिमय जीवन बिताता है, तो अन्य छात्र उसे ‘बुद्ध’ या अप्रगतिशील कहकर उसका मजाक उड़ाते हैं। आज हम अपने भारतीय आदर्शों का परित्याग करके पश्चिम के अंधानुकरण ही प्रगति मान बैठे हैं। इसका घातक परिणाम चरित्र्य दोष के रूप में आज देश में सर्वत्र दृष्टिगोचर हो रहा है।
प्रश्न 01.
चरित्र निर्माण की परम आवश्यकता है
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प्रश्न 02.
जनतंत्र के लिए लाभकारी हो सकते हैं
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प्रश्न 03.
उन्नत राष्ट्र के लिए विकास का प्रथम सोपान है?
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प्रश्न 04.
अप्रगतिशील रूप में मजाक उड़ाया जाता है, जो
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प्रश्न 05.
भारतीयता के प्रति हीन भावना का कारण है
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अनुच्छेद-07
प्राचीन काल में नारी का स्थान समाज में अग्रगण्य था। ऐसा कहा जाता था कि “जहां नारी की पूजा होती हैं, वहां देवताओं का निवास होता है।” मध्य भारत के काल से नारी का पतन शुरू हुआ। मध्य काल तक तो नारी दासी या गुलाम बन गई चहारदीवारी में कैद हो गई किंतु 19वीं शताब्दी में राजा राम मोहन राय, स्वामी विवेकानंद, दयानंद सरस्वती आदि समाज सुधारकों ने नारी जगत की काया पलट दी नारी उत्थान की ओर बढ़ती गई। आज आधुनिक नारी ने जमीन से लेकर आसमान में अपना कब्जा जमाया है, नारी तू नारायणी उक्ति को सिद्ध कर दिया है। वास्तव में देखा जाय तो नर और नारी एक रथ के दो पहिये हैं। रथ को सुयोग्य ढंग से चलाने के लिए दोनों में संतुलन होना चाहिए। शिक्षित नारी परिवार की उद्धारक है। प्रत्येक घर में नारी का सम्मान होना चाहिए। समाज में प्रचलित कुप्रथाओं से लड़ना अनिवार्य हैं। नारी ने अपना स्थान जो प्राप्त किया है, उसे मजबूत बनाने के लिए नर और नारी दोनों को तत्पर रहना चाहिए।
प्रश्न 01.
प्राचीन काल में नारी का स्थान क्या था?
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प्रश्न 02.
“नारी तू नारायणी” की सही व्याख्या क्या है?
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प्रश्न 03.
देश का उद्धार कैसे होगा?
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प्रश्न 04.
उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक होगा:
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अनुच्छेद-08
प्राचीन समय में भारत विश्व में शिक्षा और संस्कृति का प्रमुख केंद्र था। देश-विदेश के विद्यार्थी यहाँ शिक्षा प्राप्त करने आते थे। प्राचीन भारतीय शिक्षा प्रणाली के अंतर्गत विद्यार्थी को पुस्तकीय ज्ञान और आध्यात्मिक ज्ञान प्रदान करने के साथ-साथ उसे शारीरिक शिक्षा भी प्रदान की जाती थी। उसे युद्ध कौशल भी सिखाया जाता था। इस प्रकार प्राचीन शिक्षण संस्थाएँ या आश्रम विद्यार्थी के चहुंमुखी विकास पर ध्यान देते थे। आज स्थिति भिन्न है. वर्तमान दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली सिर्फ डिग्रीधारी बेरोजगारों की भीड़ उत्पन्न कर रही है। आज के अधिकांश युवा शिक्षा प्राप्त करके भी स्वावलंबी नहीं बन पाते। उनके हृदय में देश और समाज के प्रति किसी भी प्रकार का कर्तव्यबोध उत्पन्न नहीं होता। वे अपनी प्राचीन परंपराओं का सम्मान नहीं करते। वर्तमान शिक्षा प्रणाली युवाओं में राष्ट्र गौरव की भावना उत्पन्न करने में असफल रही है। समय- समय पर भारत के नीति निर्माताओं ने शिक्षा को बहुआयामी बनाने के अनेक प्रयास किए हैं। नई शिक्षा नीति में विद्यार्थी के नैतिक, मानसिक और शारीरिक विकास पर बल देने का प्रयास किया जा रहा है। अब नवीन शिक्षा प्रणाली के अंतर्गत विद्यार्थियों को जाति, धर्म और भाषा के दायरे से ऊपर उठकर राष्ट्रहित में कार्य करने के लिए प्रेरित किया जा रहा है। इस शिक्षा प्रणाली में व्यावसायिक शिक्षा पर बल दिया जा रहा है ताकि शिक्षित लोगों को रोजगार उपलब्ध हो सके।
प्रश्न 01:
प्राचीन समय में विश्व में शिक्षा और संस्कृति का प्रमुख केंद्र था-
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प्रश्न 02.
प्राचीन शिक्षण संस्थाएं ध्यान देती थीं-
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प्रश्न 03.
नवीन शिक्षा प्रणाली में विद्यार्थियों को प्रेरित किया जाता है-
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प्रश्न 04.
नवीन शिक्षा प्रणाली में व्यावहारिक शिक्षा पर बल दिया जा रहा है, ताकि-
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अनुच्छेद- 09
तत्परता हमारी सबसे मूल्यवान संपत्ति है इसके द्वारा विश्वसनीयता प्राप्त होती है। वे लोग जो सदैव जागरूक रहते हैं, तत्काल कर्मरत हो जाते हैं और जो समय के पाबंद हैं, वे सर्वत्र विश्वास के पात्र समझे जाते हैं। वे मालिक जो स्वयं कार्यतत्पर होते हैं, अपने कर्मचारियों के लिए प्रेरणा का स्रोत बनते हैं और काम की उपेक्षा करने वालों के लिए अंकुश का काम करते हैं वे अनुशासन का साधन भी बनते हैं। इस प्रकार अपनी उपयोगिता और सफलता में अभिवृद्धि करने के साथ-साथ वे दूसरों की उपयोगिता और सफलता के भी साधन बनते हैं एक आलसी व्यक्ति हमेशा ही अपने कार्य को भविष्य के लिए स्थगित करता जाता है, वह समय से पिछड़ता जाता है और इस प्रकार अपने लिए ही नहीं दूसरों के लिए भी विक्षोभ का कारण बनता है उसकी सेवाओं का कोई आर्थिक मूल्य नहीं समझा जाता कार्य के प्रति उत्साह और उसे शीघ्रता से संपन्न करना कार्य-तत्परता के दो प्रमुख उत्पादन हैं, जो समृद्धि की प्राप्ति में उपयोगी बनते हैं। नीचे दिए गए गद्यांश आधारित प्रश्नों का उत्तर दीजिए।
प्रश्न 01.
उपर्युक्त अवतरण का उपयुक्त शीर्षक दीजिए:
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प्रश्न 02.
जीवन में सफल सिद्ध होने के लिए आवश्यक उपादानों में से एक प्रमुख उपादान क्या है?
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प्रश्न 03.
गद्यांश का उचित संक्षेपण कौन सा होगा?
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अनुच्छेद-10
शिक्षा को वैज्ञानिक और प्राविधिक मूलाधार देकर हमनें जहाँ भौतिक परिवेश को पूर्णतया परिवर्तित कर दिया है और जीवन को अप्रत्याशित गतिशीलता दे दी है, वहाँ साहित्य, कला, धर्म और दर्शन को अपनी चेतना से बहिष्कृत कर मानव विकास को एकांगी बना दिया है। पिछली शताब्दी में विकास के सूत्र प्रकृति के हाथ से निकलकर मनुष्य के हाथ में पहुँच गए हैं, विज्ञान के हाथ में पहुँच गए हैं और इस बन्द गली में पहुंचने का अर्थ मानव जाति का नाश भी हो सकता है। इसलिए नैतिक और आत्मिक मूल्यों को साथ-साथ विकसित करने की आवश्यकता है, जिससे विज्ञान हमारे लिए भस्मासुर का हाथ न बन जाए। व्यक्ति की क्षुद्रता यदि राष्ट्र की क्षुद्रता बन जाती है, तो विज्ञान भस्मासुर बन जाता है। इस सत्य को प्रत्येक क्षण सामने रखकर ही अणु- विस्फोट को मानव प्रेम और लोकहित की मर्यादा दे सकेंगे। अपरिसीम भौतिक शक्तियों का स्वामी मानव आज अपने व्यक्तित्व के प्रति आस्थावान नहीं है और प्रत्येक क्षण अपने अस्तित्व के सम्बन्ध में शंकाग्रस्त है।
प्रश्न 01.
आज का मानव अपने व्यक्तित्व और अस्तित्व के प्रति इसलिए शंकालु है, क्योंकि-
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प्रश्न 02.
हमारी विज्ञानाधृत शिक्षा की सर्वाधिक महत्वपूर्ण देन है-
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प्रश्न 03.
मानव जीवन को भस्मासुर बनने से कैसे रोक सकता है?
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प्रश्न 04.
आधुनिक मानव विकास को सर्वांगीण नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि-
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प्रश्न 05.
अणु विस्फोट को मानवतावादी की मर्यादा देना तभी सम्भव है, जब व्यक्ति की-
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